Monday, November 16, 2009

बाल दिवस पर फ़िर याद आया .....मुझे अपना बचपन.........

बाल दिवस के सन्दर्भ मे अपनी एक कविता जो मैने पहले भी (गर्मी की छुट्टियों मे ) पोस्ट की थी एक बार फ़िर याद दिलाना चाहती हूँ------

एक था बचपन..........

"खो गया वो "बचपन" ,
जिसमें था "सचपन" ,
गुम हो गई "गलियां" ,
गुम हो गए "आंगन " ,
अब वो "पाँचे" ,
ना ही वो "कंचे" ,
रही वो "पाली" ,
ना "डंडा -गिल्ली" ,
वो "घर-घर का खेल" ,
शर्ट को पकड़कर बनती "रेल" ,
अब मुन्नी पहनती --वो "माँ की साड़ी" ,
ना मुन्नू दौडाता--"धागे की खाली रील की गाडी" ,
खो गए कही वो "छोटे -छोटे बर्तन खाली" ,
जिसमे झूठ - मूठ का खाना पकाती थी --मुन्नी ,लल्ली ,
थोडी देर के लिए पापा -मम्मी बन जाते थे रामू और डॉली ,
अब
आँगन में "फूलो की क्यारी" ,
उदास -सी बैठी है गुडिया प्यारी ,
खो गई अब वो गुडिया की सहेली "संझा",
और भाई का वो "पतंग और मांझा" ,
ना दिखती कही साईकिल पर "सब्जी की थैली" ,(सुबह )
सडssss की आवाज वो "चाय की प्याली" , (शाम )
"छुपा-छुपी" का वो खेल खो गया ,
खेलने का समय भी देखो--- अब कम हो गया !!!!!!

और अब इसके आगे-------


खेल ही जीवन है?,
या जीवन ही खेल है?
कभी इस पहेली में न खुद को डुबोना,
मेरी एक बात सदा याद रखना---
खेलों को जीवन से कभी न खोना,
क्योंकि --जब हम बच्चे होते हैं,
तो चाहते हैं--बडा होना , और
बडे हो जाने पर दिल चाहता है--
फ़िर से एक बार बच्चा होना ! ! !



5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया रचना!!

विनोद कुमार पांडेय said...

खो गया बचपन मगर दिल है की मानता ही नही आज भी हम बचपन के उन्ही मचलते पलों को ढूढ़ते रहते है और जब कभी समय मिलता है उन्ही यादों के झरोखों में खो सा जाते है...बढ़िया रचना..बहुत बहुत बधाई!!!

राज भाटिय़ा said...

मेरी एक बात सदा याद रखना---
खेलों को जीवन से कभी न खोना,
क्योंकि --जब हम बच्चे होते हैं,
तो चाहते हैं--बडा होना , और
बडे हो जाने पर दिल चाहता है--
फ़िर से एक बार बच्चा होना ! ! !
बहुत सुंदर रचना कहीआप ने
धन्यवाद

Rajeysha said...

ये आदमी का दि‍ल है जी
जो नहीं होता वही चाहता है।

अजय कुमार झा said...

वाह दी , दोनों ही टुकडे बहुत खूबसूरत और दिल को छूने वाले हैं , एकदम सरल और सुंदर ।

आह वो बचपन (: