Sunday, December 9, 2012

पुराने रिश्ते -पुराने लोग

पता नहीं ये योग है या संयोग -- आज प्रो. सरोजकुमार जी के यहाँ जाना हुआ माँ को लेकर( कल वादा जो कर लिया था)...फ़िर वे और माँ बीते दिन याद करते रहे ,और मैं सुनती रही........याद करते-करते बताया कि केमेस्ट्री पढ़ने आते थे पिताजी के पास ......तभी उन्होंने माँ से पूछा मिसेस देसाई से कभी बात हुई या नहीं आपकी ? एक ही आँगन था आपका...माँ ने बताया कि एक बार हुई करीब २०-२२ साल पहले ..और अचानक उन्होंने मिसेस देसाई को फोन लगाया और उनसे कहा मेरे यहाँ कौन आया है ,पता है?आपकी पडोसी...फ़िर माँ से बात करवाई ,उन्होंने फोन नम्बर देने को कहा और माँ ने फोन मुझे पकड़ा दिया...मैंने नमस्कार कहा और वे बोली तुम तो पैदा भी नहीं हुई थी तब .....मैं कल उसी डॉ. के यहाँ आकर मिलती हूं वो मेरा भी डॉ. है मेरे बेटे के साथ पढ़ा है ....अब कल उनसे मुलाकात तय हुयी है ....:-) ये पुराने लोग भी कितने अजीब से रिश्तों में बँधे होते हैं.....
 ये चित्र १९ जनवरी २०१२ का है जब मेरे बच्चों को शुभाशीष देने वे आये थे चित्र में माँ और मेरे साथ प्रो. सरोजकुमार जी 
इसी के साथ मुझे एक और वाकया याद आ गया-- बात तबकी है जब मेरी शादी के बाद मैं और सुनिल राँची आने से पुर्व अपने रिश्तेदारों के घर मिलने गये थे ,मेरी बड़ी ननद जी के घर भी जाना तय हुआ था,जो "भंडारा"(महाराष्ट्र) में  रहती थीं। नये लोग ,नये शहर और नई भाषा का सामना करते -करते बहुत घबराहट सी होने लगी थी ,माँ का घर छोड़े ८ दिन होने आये थे। नागपूर से भंडारा बस से गये थे ,जैसे ही हम भंडारा उतरे मुझे कुछ जाना पहचाना सा लगने लगा ,समझ नहीं आ रहा था नाम सुना सुना क्यों लग रहा है ...खाना खाकर हम बैठे ही थे और मेरे दिमाग में विचार खलबली मचा ही रहे थे कि याद आया मैने ये एक पोस्ट कार्ड पर एड्रेस में पढ़ा है -
फ्राम- 
पी. डी. चन्दवासकर 
खामतलाव,गुप्ते का वाड़ा 
भंडारा(महाराष्ट्र)
और याद आते ही मुझसे रहा नहीं गया , ननद जी से पूछा -यहाँ कोई गुप्ते का वाड़ा है क्या ?
जबाब मिला- हाँ,पास ही है।
मैंने पूछा- क्या वहाँ जा सकते हैं?
उन्होंने पूछा - क्यो? कोई जान-पहचान वाला रहता है?
ह्म्म्म, हमारे यहाँ हर साल दिवाली पर एक पोस्ट-कार्ड आता है, दीपावली और नये वर्ष की शुभकामनाओं का...उस पर ये एड्रेस रहता है, और मुझे भंडारा नाम से ये ही याद आया ...
मेरे बताने पर वे मुझे वहाँ लेकर गई,एक घर पर पी. डी. चंदवासकर की नामपट्ट देकर मैंने द्वार पर दस्तक दी...एक  महिला ने द्वार खोला,मैंने कहा -गुप्ते जी से मिलना है,उन्हें बुला दीजिये..
वो महिला अन्दर चली गई ,थोड़ी देर बाद मेरे पिता की उम्र के एक व्यक्ति बाहर आये बोले - मैं गुप्ते ..
मैंने चरण छुए ,शीर्वाद देते हुए वे बोले मैंने तुमको  पहचाना नहीं...
मैंने कहा- मैं खरगोन के बी. एल. पाठक वकील साहब की बेटी अर्चना...
और उनके चेहरे पर जो खुशी देखी बयाँ नहीं कर सकती...उन्होंने बताया कि-" मैं और तुम्हारे पिताजी तुम्हारे जन्म से भी पहले इन्दौर में एक ही कॉलेज में लेक्चरर थे...बाद में उसने वकालात कर ली और खरगोन चला गया ,मैं भी कुछ सालों बाद अपने घर आ गया तबसे यहीं हूँ ,वो तो बहुत व्यस्त हो गया लेकिन मैं उसे भुला नहीं पाता हू....
...और आपके कार्ड का इन्तजार हम करते हैं -मैंने जोड़ा ..और बताया कि किस तरह यहाआई ..
उन्होंने मुझे नेग देते हुए कहा ये भी तेरा ही घर है  ....
जब वापस घर लौटी और पिताजी को बताया तो उनके चेहरे के भाव भी बता रहे थे जैसे वे खुद मिल लिये हो अपने दोस्त से ...
अब न पिताजी रहे न उनके दोस्त चंदवासकर अंकल....लेकिन मुझे दोनों याद आ ही जाते हैं... 
चाहती हूबच्चों को भी यादों में कुछ ऐसा ही दे जाएँ हम....


8 comments:

अरुन अनन्त said...

सुन्दर प्रस्तुति
अरुन शर्मा
Recent Post हेमंत ऋतु हाइकू

प्रवीण पाण्डेय said...

पुरानी स्मृतियों के अन्दर छिपा शक्ति का सूत्र।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

कोई कमेन्ट नहीं!! बस प्रणाम!

Akash Mishra said...

यादें , एक अनमोल तोहफा |

सादर

Ramakant Singh said...

रिश्ते ऐसे ही होते हैं जिन्हें पुरे मनोयोग से जिया जाता है जैसे तुम मेरी सगी बहन हो.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि नई पीढ़ी रिश्ते निभाना नहीं जानती लेकिन यह तो ध्रुव सत्य है कि पुराने लोग रिश्ते निभाना जानते थे। कैसे-कैसे रिश्ते होते थे ये मीत के रिश्ते! दूध के रिश्तों से भी अधिक मान मिलता था इन्हें। आपने जिस तरह से इन रिश्तों को ढूँढा..सहेजा वह अद्भुत है। अंतिम पंक्तियों में सीख भी दे गईं कि हमारा भी यह दायित्व है कि जाने से पहले हम अपने बच्चों को भी ऐसी दुनियाँ से रूबरू कराते जांय..ऐसा न हो कि बच्चों को ये बातें झूठी और काल्पनिक लगें।

इस्मत ज़ैदी said...

अर्चना जी आप के लेख ने तो भावुक कर दिया
परंतु मुझे तो लगता है कि संस्कारों के साथ-साथ ये हर व्यक्ति के अपने स्वभाव पर भी निर्भर होता है ,,हर पीढ़ी में दोनों तरह के लोग हैं लेकिन आज समस्या समय की है किसी के पास इतना समय ही नहीं कि नए रिश्ते बनाए या कम से कम बने हुए रिश्तों को सहेज सके और मेरा तो मानना है कि
’रिश्तों की क़द्र जो न करे बदनसीब है
दुनिया में ऐसा शख़्स ही सब से ग़रीब है’

इतने संस्कारी और भावपूर्ण लेख के लिये बधाई और धन्यवाद !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

इसकी चर्चा यहाँ भी है..

http://merecomment.blogspot.in/2012/12/blog-post.html